दीपावली बचपन की
जब से शहरों की तरफ बढ़ चले हैं हम,
वो मिट्टी के दिए और हाथी घोड़े दिखते नहीं।
अब ना जाने क्यों दीवाली, दीवाली लगती नहीं।
अब ना जाने क्यों दीवाली, दीवाली लगती नहीं।
अब वो बचपन के दिन नहीं आते
जब मिट्टी के दियों को हम इकठ्ठा करते थे।
वो दिये को लेने के लिए देर तक जागते थे।
वो दिये जिन्हे लेने के लिए कुम्हार के घर तक जाते थे।
वो दिये जिनसे बचपन की यादें जुडी हैं,
वो दिये जिन्हे हम पडोसी के घर से भी ले आते थे।
दिवाली के अगले दिन हम उन्हें सजाते,
वही दिये जिनसे हम तराजू बनाते और खेलते।
अब मिट्टी के दिये बदल गए,
सब वक़्त के साथ चल दिए।
अब बस बचा है कुछ तो बस दिवाली की छुट्टी,
और वो घर में बनने वाली रंगोली।
दशहरे से दिवाली के आने का इंतज़ार नहीं रहा,
अब लोगो में अपने बचपन वाला प्यार ना रहा।
अब दिवाली बस कैलेंडर की छुट्टी के लिए आती है,
अब वो बचपन वाली दिवाली नहीं आती।
Really miss those days... 😊
ReplyDeleteI love those days.... Reflect again.... My goddd
ReplyDeleteMiss you bachpan
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