सूरज के ढलते ही लग जाता है बाजार
कोई अता हवस मिटाने, कोई करता सच्चा प्यार,
जगह बदलते मतलब बदला, अपना कोई ना होता
मिटती है यहां भूख हवस की, कहते हैं इसे कोठा।
ना होते हैं माँ बाप, ना होता घर परिवार
ना कोई किसी की बेटी, ना किसी भाई का प्यार
आता जो भी यहाँ पर बस जिस्म का मतलब होता
होता है बाजार जिस्म का, कहते हैं इसे कोठा।

सब भूख की बात है प्यारे, चाहे पेट हो या हो तन
सब हो जाते हैं गायब, जैसे भरता मन
मिट जाती अगर भूख जगत की ऐसा कभी ना होता
जिन्दा बिकते मुर्दा बनकर, कहते हैं इसे कोठा।
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